गुरुवार, 26 नवंबर 2020

आज की जरूरत : भाषा या प्रतिभा


 हम सब सीखते हैं और हमें यह सिखाया भी जाता है- 'Do something creative,  Think something new.'





सही है कुछ नया करने की जिज्ञासा ही तो हमें अन्य प्रजातियों से अलग करता है। हम नए-नए आविष्कार करते हैं, नए-नए विचारधाराओं का प्रतिपादन करते हैं, जितना हो सके हम अपने जीवन को ज्यादा से ज्यादा सभ्य बनाने की निरंतर कोशिशों में जुटे रहते हैं। 

ये  आविष्कार, नई विचारधाराएं , क्रांतियां आदि होती कैसे हैं? 
अगर ,प्रतिभा की बात करें तो प्रतिभा किसी मनुष्य के द्वारा निरंतर प्रयासों से खुद के अंदर की जगाई गई हुनर नए आविष्कार आदि सपने को साकार करती है। 
 
अब सवाल यह है कि हमारे अंदर प्रतिभा आती कहां से है , हमें पता कैसे चलता है कि हम यह कर सकते हैं?
      अगर देखा जाए, तो दुनिया में ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो बिना प्रतिभा का जन्म लिया हो प्रत्येक व्यक्ति के पास कोई ना कोई प्रतिभा अवश्य  ही होती है।





       जिस प्रकार,  गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देकर उसके अंदर प्रतिभाओं से परिचित कराया था ठीक उसी प्रकार,  हम सबके जीवन में भी श्रीकृष्ण रूपी हमारे माता-पिता, शिक्षकगण आदि हमें हमारे प्रतिभाओं से अवगत कराते हैं। प्रतिभाओं से अवगत कराने के दौरान माता-पिता एवं शिक्षकगण और हमारे बीच एक  संप्रेषण  विकसित होता है। संप्रेषण का माध्यम भाषा है। 


 एक तरह से देखा जाए तो सब कुछ एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम सब अपने अपने प्रतिभाओं से परिचित होते हैं। 



मुझे एक छोटे से  शेरू की कहानी याद आ रही है ,वह शेरू जो बचपन में अपने मां - पापा से जंगल में बिछड़ गया था। वह बहुत छोटा था और प्यारा भी । उसने तो अभी -अभी चलना शुरू ही किया था उसके अपने उससे बिछड़े गए । उसे जोरों से भूख लग रही थी , वह बस रोए जा रहा  था। 



    कुछ देर के बाद,  एक भेड़ों का झुंड उसी रास्ते से होकर गुजर रहा था , तभी एक  भेड़ मां की नजर उस नन्हे शेरू पर पड़ी । भेड़ मां को उस पर दया आ गई और उसने उसे अपने झुंड में शामिल कर ली। चूकिं उसके भी दो छोटे-छोटे बच्चे थे , इसलिए शेरु को भी अपने बच्चों की भांति लालन-पालन करने लगी । बस इतना ही नहीं शेरू भी भेड़ मां को अपनी मां मानने लगा था, फिर वह अपनी इस प्यारे से परिवार से बिल्कुल घुल -मिल गया।

          कुछ समय गुजर गया, अब  शेरू की आवाज में भारीपन आने लगा था । जब कभी वह जोर से बोलने की कोशिश करता तो उस  झुंड के सारे बच्चे डर जाते हैं ।अब कोई शेरु के साथ नहीं खेलता था,  शेरू अब अकेला और उदास रहने लगा था, वह हमेशा सोचा करता था इसमें उसकी क्या गलती? 
        एक दिन भेड़ों के झुंड के साथ शेरू भी पानी पीने गया । वहीं झाड़ियों के पीछे एक शेरनी शिकार के लिए ताक लगाए बैठा थी , मौका मिलते ही उसने हमला कर दिया। फिर, 
 वह कोई शिकार कर पाती ,उससे पहले वह हैरान रह गयी। वह देखी, एक शेर का बच्चा भेड़ों की तरह डरा हुआ है और भागे जा रहा है। उस शेरनी ने शेरू को पकड़कर उसे पानी में उसका चेहरा दिखलाई।  शेरु  अब समझ चुका था कि वह भेड़ नहीं , शेर है। लेकिन अभी  भी वह  शेरों की भाषा नहीं समझता था।  क्योंकि उसका परवरिश भेड़ो  के बीच हुआ था। 




इस कहानी से कुछ बातें सामने निकल कर  आती है-
  •  एक झुंड में अलग विचारधारा रखने वाला सदैव अपने स्थान पर अकेला खड़ा होता हैैै चाहे फिर वह सही हो या गलत । परिस्थितियां निर्धारित करती है सही या गलत विचारधाराएं नहीं। 
  • प्रतिभा के निखार के लिए सही समय पर सही ज्ञान मिलना चाहिए, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पौधे को सही समय में सही मात्रा में पोषक तत्व /खाद की जरूरत होती है। 

ये तो बात थी प्रतिभा की जिसे आज भारत मे  भाषा की चादर से ढक  दिया जाता है। जो विकास के मार्ग का सबसे बाद अवरोधक है। 
 हमेशा की भांति मेरे मन में अभी भी कुछ सवाल बाकी है-
  • प्रतिभा सबों को मिली है फिर प्रतिभावान् कुछ ही क्यों? 
  • प्रतिभा की पहचान भाषा से क्यों ? 
  •  साधन बड़ा या साध्य,  (तब जब साधन गलत नहीं) 

बुधवार, 18 नवंबर 2020

महिलाओं की आजादी : सच्चाई या मिथ्य

आजादी शब्द से तो सभी परिचित होंगे। हमारे देश के अंदर सभी नागरिकों को स्वतंत्रता का अधिकार भी प्राप्त है। 



लेकिन सवाल यहां पर यह है कि क्या संविधान से मिली स्वतंत्रता का अधिकार से सचमुच में हमें आजादी मिल जाती है? 

      तो मेरा यहां जवाब होगा शायद नहीं...............   अगर मिलती भी है तो सिर्फ बाह्य रूप से।  

क्योंकि इंसान को आजादी तो अंदर से या आंतरिक रूप से मिलती है, या मैं कहूं कि आजादी मन की शांति खुशी और स्वस्थ मानसिकता है तो गलत नहीं होगा। 

मेरे इस परिभाषा के अनुसार तो जनसंख्या की मात्र 10℅ ही लोग आजादी का सुख भोग रहे हैं। 

वैसे, मैं कुल जनसंख्या की लगभग आधी हिस्सा महिलाओं की मुख्य रूप से बात कर रही हूं। 

संवैधानिक रूप से कानूनी रूप से महिलाओं को बहुत सारे अधिकार मिले हैं फिर भी करियर के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या काफी कम है ।आखिर क्यों? 

मेरी मान्यता के अनुसार इसका जवाब होगा - 'मानसिक गुलामी।' 

  मुझे एक छोटा सा उदाहरण याद आ रहा है , स्कूली दिनों की बात है, जब हम कभी अपने शिक्षक से कहते हैं - सर , हमसे यह काम नहीं हो पाएगा , तो हमें वह एक हाथी का उदाहरण देते हुए एक कहानी सुनाया करते थे - 


एक  छोटा सा हाथी था, जिसे जंजीरों से बांधकर रखा गया था । बेचारा हाथी काफी कोशिश किया कि उस जंजीर को वह तोड़ दें लेकिन वह नहीं तोड़ पाया। कुछ सालों के बाद , वह बड़ा हो गया अब वह उस जंजीर को तोड़ सकता था, लेकिन अफसोस वह मान लिया था कि वह इसी नहीं तोड़ पाएगा। वह तो पतली रस्सी को भी नहीं तोड़ता क्योंकि वह मानसिक रूप से गुलाम बन चुका था। 



कुछ ऐसी ही गुलामी में महिलाएं जीती है । यह गुलामी की जंजीर को कोई भी अधिकार नहीं तोड़ सकता। 

 एक छोटा सा उदाहरण कई बार मेरा वाद-विवाद महिलाओं के कपड़े को लेकर हो जाता है। मैं समीक्षा करती हूं कि 80 -90℅  लोग महिलाओं के साथ हो रहे क्राइम को लेकर उनके कपड़े और उसके स्वाभिमानी विचारधारा को मानते हैं। 

  चलो, मैं इन लोगों से भी सहमत हो जाती हूं। मैं भी पूर्ण रूप से पश्चिमीकरण के पक्ष में नहीं हूं । मुझे अपनी संस्कृति सबसे ज्यादा प्रिय है लेकिन लोगों से मेरा 2 सवाल है-

• गर्ल चाइल्ड के साथ अपराध क्यों? 

• महिलाएं पूर्ण रूप से भारतीय संस्कृति को अपनाती है     जबकि पुरुषों के वस्त्र तो 90 ℅  पश्चिमी  है तो इस         विचारधारा के अनुसार महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों से     ज्यादा अपराध होने चाहिए थे? 

 मुझे कोई धोती कुर्ता में नजर नहीं आता। 

निष्कर्षत: मैं यह कहूंगी  किसी और की संस्कृति की अच्छाईयों को अपनाना अपनी संस्कृति को त्यागना कतई नहीं कहलाएगा।

(नोट - कोई भी इसे व्यक्तिगत् रूप से न लें।) 

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